मिर्ज़ा ग़ालिब दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँरोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकलेबहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकल इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'कि लगाए न लगे और बुझाए न बने दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या हैआख़िर इस दर्द की दवा क्या है"रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?""बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।""हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'ग़ालिब',आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है।"क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँरंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन